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Manoj Jarange: मराठा आंदोलन का वो लीडर जिसे कहा जा रहा महाराष्ट्र का दूसरा अन्ना

महाराष्ट्र के बीड के रहने वाले मनाज जरांगे का जन्म मोतारी गांव में हुआ था. उन्होंने 2010 में 12वीं पास की और उसके बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी.

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण (Maratha Reservation) के लिए आंदोलन चल रहा है. जो उग्र भी हुआ, कई जगह इंटरनेट भी बंद हुआ और कर्फ्यू भी लगा. लेकिन सरकार और सारी पार्टियां इस आंदोलन के आगे झुकती हुई नजर आईं. सीएम एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) ने जब सर्वदलीय मीटिंग बुलाई तो किसी भी पार्टी ने आरक्षण का विरोध नहीं किया. जिससे मराठाओं को आरक्षण की उम्मीद जगी है. लेकिन ये ऐसे ही मुमकिन नहीं हुआ, इसके पीछे लंबी लड़ाई है और एक नेता का लंबा संघर्ष है जिसने आंदोलन के लिए अपनी जमीन तक बेच दी. जी हां जिन मनोज जरांगे को महाराष्ट्र का दूसरा अन्ना कहा जा रहा है उनकी कहानी खास है.

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Manoj Jarange कौन हैं ?

महाराष्ट्र के बीड के रहने वाले मनाज जरांगे का जन्म मोतारी गांव में हुआ था. उन्होंने 2010 में 12वीं पास की और उसके बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी. पढ़ाई छोड़कर वह मराठा आंदोलन से जुड़ गए. इसके साथ वो होटल में नौकरी करते थे. होटल में नौकरी करके थोड़ी आमदनी होती थी, लेकिन उसके बावजूद मराठा आंदोलन की चाहत ने उन्हें पीछे नहीं हटने दिया.

मनोज जरांगे ने आंदोलन के लिए बेची जमीन!

मनोज जरांगे के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. उनके परिवार में माता-पिता, पत्नी, 3 भाई और 4 बच्चे हैं. वो अपने परिवार जे ज्यादा अपनी मराठा आंदोलन की मुहिम को ज्यादा महत्व देते हैं. मनोज के पास महज 4 एकड़ पैतृक जमीन थी. आंदोलन के लिए उन्होंने उस 4 एकड़ में 2 एकड़ जमीन भी बेच दी है. मनोज ने मराठा आरक्षण आंदोलन के लिए अपना एक संगठन बना रखा है जिसका नाम ‘शिवबा’ है.

भूख हड़ताल पर हैं जरांगे

मनोज जरांगे के अनशन का ये दूसरा पार्ट-2 है. पहली बार जब वो मराठा आरक्षण को लेकर अनशन पर बैठे, तो सरकार ने एक समिति बनाई थी. इस पर निर्णय लेने के लिए मनोज जरांगे को 24 अक्टूबर की डेडलाइन दी थी. सरकार के इस वादे के बाद जरांगे ने 14 सितंबर को भूख हड़ताल खत्म कर दी थी. जब 24 अक्टूबर को मराठा आरक्षण का वादा नहीं पूरा हुआ तो, वो 25 अक्टूबर को दोबारा अनशन पर बैठ गए. वो 8 दिनों से भूख हड़ताल पर बैठे हुए हैं.

मनोज जरांगे की मांगे क्या हैं?

अनशन करते हुए आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मनोज जरांगे की बहुत सीधी सी मांग है. वह बस इतना कह रहे हैं कि सरकार बिना देर किए मराठाओं को कुनबी जाति का प्रमाण पत्र जारी करे. ये एक लाइन ही पूरे मराठा आंदोलन का आधार है. असल में कुनबी जाति के लोगों को सरकारी नौकरियों से लेकर शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण मिलता है. मराठवाड़ा क्षेत्र महाराष्ट्र का हिस्सा बनने से पहले तत्कालीन हैदराबाद रियासत में शामिल था. अगर मराठों को कुनबी सर्टिफिकेट मिलता है तो उन्हें खुद ब खुद आरक्षण मिल जाएगा. मनोज जारांगे ने जब सितंबर में आंदोलन शुरू किया था तब सरकार से बातचीत के बाद उन्होंने 40 दिनों का अल्टीमेटम दिया था, उसके पूरा होते ही वह फिर धरने पर बैठ गए. जारांगे मराठाओं के लिए ओबीसी का दर्जा मांग रहे हैं.

मराठा कौन हैं?

मराठाओं में जमींदार और किसानों के अलावा अन्य लोग शामिल हैं. अनुमान है कि महाराष्ट्र में मराठाओं की आबादी 33 फीसदी के आसपास है. ज्यादातर मराठा मराठी भाषी होते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि हर मराठी भाषी मराठा ही हो. मराठा को महाराष्ट्र में सबसे प्रभावशाली समुदाय माना जाता है. 1960 में महाराष्ट्र के गठन के बाद से अब तक 20 में से 12 मुख्यमंत्री मराठा समुदाय से ही रहे हैं. मौजूदा मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भी मराठा हैं.

आरक्षण का विरोध भी हो रहा है?

सरकार के लिए मराठा आरक्षण देना आसान नही है. अगर शिंदे सरकार इसके लिए आगे बढ़ती है तो इसे शर्तिया तौर पर राज्य में ओबीसी का भारी विरोध झेलना पड़ेगा. राष्ट्रीय ओबीसी महासंघ मराठा समुदाय को कुनबी प्रमाणपत्र यानी ओबीसी कोटे से आरक्षण देने का कड़ा विरोध कर रहा है. राज्य में ओबीसी नेता भी इसका विरोध कर रहे हैं.

बहुत पुरानी है मराठा आरक्षण की मांग

महाराष्ट्र में पिछले चार दशकों से मराठा आरक्षण की मांग चल रही है. यह आंदोलन कई बार हिंसक रूप भी ले चुका है. महाराष्ट्र के अधिकतर मुख्यमंत्री मराठा होने के बावजूद अपने समुदाय के लिए कोई हल नहीं निकाल सके हैं. सबसे पहले 2014 में पृथ्वीराज चव्हाण ने 16 फीसदी आरक्षण के लिए अध्यादेश लेकर आए. पर 2014 में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार चुनाव हार गई और बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनी और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बने.

फडणवीस सरकार में मराठा आरक्षण को लेकर एक आयोग बना. इसी आयोग की सिफारिश पर फडणवीस सरकार ने सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड क्लास एक्ट के तहत मराठों को 16 फीसदी आरक्षण दिया. बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने सरकारी नौकरियों में 13 फीसदी और शैक्षणिक संस्थानों में 12 फीसदी कर दिया. आगे चलकर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस फैसले को पूरी तरह ही रद्द कर दिया.

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