सुमित विजयवर्गीय
एक धोबी के पास एक गधा था जिसे वो कपड़े लादकर लाने ले जाने के लिए इस्तेमाल करता था। एक बार धोबी कपड़े धोने के लिए नदी किनारे आया। गधे की पीठ से कपड़े उतारते वक़्त उसे याद आया कि जिस रस्सी से वो गधे को पेड़ से बांध देता था, वो आज उस रस्सी को लाना भूल गया है। धोबी बड़ी चिंता में पड़ गया। वो इस चिंता में घुला ही जा रहा था कि क्या अब फिर से उसे इतनी दूर जाकर रस्सी लानी होगी क्योंकि नहीं तो मेरे कपड़े धोने जाते ही ये गधा तो कहीं रपक (निकल) लेगा। वो ये सब सोच ही रहा था कि उधर से एक आदमी गुज़रा जो काफ़ी पढ़ा-लिखा और समझदार दिखता था।
धोबी ने अपनी दास्तां उस आदमी से कह डाली और उससे किसी सलाह की आशा करने लगा। उस आदमी ने धोबी की पूरी बात इत्मीनान से सुनी और उससे कहा कि रस्सी लाने की कोई ज़रूरत नहीं है बस जब रस्सी होने पर तुम जिस प्रकार अपने गधे को बांधते आए हो ठीक उसी प्रकार का अभिनय करो। काल्पनिक रस्सी से उसे बांध दो। धोबी ने ठीक वैसा ही किया और बिल्कुल वैसे ही अपने गधे को थपथपाया जैसे वो रस्सी मजबूती से बांधने के बाद थपथपाया करता था।
धोबी कपड़े धोता जाता और बीच-बीच में दूर बंधे अपने गधे को देखकर आश्चर्यचकित होता जाता कि ये काल्पनिक रस्सी तो ख़ूब काम कर रही है। कई बार अनायास उसके मुंह से ठहाके भी निकल जाते।
सारे कपड़े धोने के बाद उसने वो कपड़े गधे पर लाद दिए और फिर उसने गधे को ठहाके लगाते हुए कुछ यूं हांका कि ‘तू तो सच में गधा है जो रस्सी थी ही नहीं उससे बंधा पड़ा रहा’ लेकिन उसके ठहाके तुरंत रुक गए जब गधा आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं हुआ।
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धोबी के बहुत हांकने के बाद भी गधा एक पैर भी आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं था। धोबी घबरा गया, घबराकर उसने इधर-उधर देखा और पाया कि पेड़ की छांव में बैठकर वही समझदार और काफ़ी पढ़ा-लिखा आदमी मुस्कुरा रहा है। वो आदमी भी ये सब तमाशा देखने के लिये बैठ गया था हालांकि वो पढ़ा-लिखा था लेकिन अक्सर वो कहीं भी तमाशे देखने रुक जाया करता था। उस आदमी ने कहा कि तुम शायद भूल गए हो कि तुम्हारा गधा बंधा है, उसे ठीक उसी प्रकार खोलो जिस प्रकार रोज़ खोलते आए हो। धोबी एक बार फिर से आश्चर्यचकित हुआ और उसने ठीक उसी प्रकार अपने गधे को खोला जिस प्रकार वो रोज़ उसकी रस्सी खोला करता था और फिर से उसे थपथपाया करता था। ऐसा करते ही गधा अपने रास्ते चल दिया।
कहानी का सार यह है कि- यह कहानी हमें गहरी सीख देती है कि हमारी ज़िंदगी में कई बार हम काल्पनिक बंधनों में फंसे रहते हैं, जिन्हें हम असल मान लेते हैं। ये बंधन हमारी सोच, डर, सामाजिक धारणाओं, या आत्म-निर्णयों से बनते हैं। असल में, वे बंधन होते ही नहीं हैं—बस हमारी मानसिकता का परिणाम होते हैं।