नागा साधू बनने के लिए एक कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसे केवल अखाड़े के सदस्य ही पूरा कर सकते हैं। पहले तो अखाड़ा समिति उस व्यक्ति की योग्यता का मूल्यांकन करती है और अगर व्यक्ति साधु बनने के योग्य होता है, तब उसे अखाड़े में प्रवेश मिलता है। नागा साधू बनने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक होता है, और यह प्रक्रिया छह महीने से लेकर एक साल तक चल सकती है। इस दौरान साधक को पांच गुरुओं से दीक्षा प्राप्त करनी होती है—शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश—जिन्हें पंच देव कहा जाता है। इसके बाद व्यक्ति सांसारिक जीवन को छोड़कर आत्मिक जीवन की ओर बढ़ता है और स्वयं का पिंडदान करता है।
भिक्षा पर निर्भर जीवन
नागा साधू को केवल भिक्षा में प्राप्त भोजन ही स्वीकार करना होता है, और अगर किसी दिन भिक्षा नहीं मिलती, तो उन्हें बिना खाए रहना पड़ता है। वे सदैव वस्त्र पहनने से बचते हैं, क्योंकि इसे सांसारिकता का प्रतीक माना जाता है। इसके बजाय वे शरीर पर भस्म लगाकर उसे ढकते हैं। नागा साधू न तो बिस्तर पर सोते हैं और न ही कभी किसी के सामने सिर झुकाते हैं, सिवाय वरिष्ठ संतों के आशीर्वाद लेने के लिए। यही वह साधक होते हैं जो सभी नियमों का पालन करके नागा साधू बनते हैं।
क्या है लंगोट का विशेष महत्व ?
नागा साधू सामान्यत: निर्वस्त्र रहते हैं, लेकिन कुछ साधू लंगोट पहनते हैं। जब कोई व्यक्ति नागा साधू बनता है, तो उसे सिर्फ एक लंगोट दिया जाता है। कुंभ मेले में वे लंगोट को त्याग देते हैं और फिर जीवन भर बिना वस्त्रों के रहते हैं। यही कारण है कि कुछ नागा साधू लंगोट में तो कुछ निर्वस्त्र दिखाई देते हैं। इन साधुओं का इतिहास बहुत पुराना है, और इन्होने मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था। वे पर्वों के दौरान ही दिखाई देते हैं और कुंभ समाप्त होने के बाद अपने साधना स्थल लौट जाते हैं।
भस्म और हवन की प्रक्रिया
नागा साधू अपने शरीर पर भस्म (भभूत) लगाते हैं, जो एक विशेष प्रक्रिया से तैयार होती है। इसमें पीपल, पाखड़, बेलपत्र, केले के पत्ते और गाय के गोबर को हवन कुंड में जलाकर भस्म बनाई जाती है। यह भस्म उनके तप की निशानी होती है, और इसका उपयोग वे अपने शरीर को ढकने के लिए करते हैं।
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नागा साधू अपने समुदाय को ही परिवार मानते हैं। वे कुटिया बनाकर रहते हैं और इनका कोई स्थायी घर नहीं होता। इन साधुओं को दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की अनुमति होती है, और अगर उन्हें भिक्षा नहीं मिलती, तो वे बिना भोजन के रहते हैं। वे दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं, और इनका अधिकांश समय तपस्या में ही व्यतीत होता है। आदिगुरु शंकराचार्य ने इस परंपरा की शुरुआत की थी, और जुना अखाड़ा में इन साधुओं की संख्या सबसे अधिक होती है।
भू-समाधि और अंतिम संस्कार
नागा साधुओं का अंतिम संस्कार भी सामान्य तरीके से नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें भू-समाधि दी जाती है, जहां उन्हें सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर अंतिम संस्कार किया जाता है। यह साधू जीवनभर महादेव की पूजा और तपस्या में संलग्न रहते हैं। वे अखाड़े के कठोर नियमों के अधीन होते हैं, और अगर कोई साधू नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसे कठोर दंड भी दिया जाता है।