Akhilesh Yadav on Kanshiram: समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल ही में एक बयान में कहा कि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने 1991 में इटावा से लोकसभा चुनाव केवल मुलायम सिंह यादव के समर्थन से जीता था। उनका कहना था कि कांशीराम पहले चुनाव नहीं जीत सकते थे, और यह जीत सपा और बसपा के गठबंधन के कारण हुई। यह बयान उत्तर प्रदेश की जातिगत राजनीति में नई बहस को जन्म दे रहा है, खासकर 2027 के चुनावों की दृष्टि से। यादव का उद्देश्य दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को सपा के पक्ष में आकर्षित करना हो सकता है, जो पारंपरिक रूप से बीएसपी का समर्थन करते हैं।
कांशीराम की 1991 की जीत एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसने बसपा को राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रभावशाली पार्टी बना दिया। हालांकि, यादव के दावे के बावजूद, यह जीत कांशीराम के संघर्षों और उनकी पार्टी की जमीनी मेहनत का परिणाम थी, न कि केवल सपा के समर्थन का। इस गठबंधन का मकसद भाजपा के बढ़ते प्रभाव को चुनौती देना था। 1991 में सपा और बसपा का साथ आना उत्तर प्रदेश के राजनीति में एक नया मोड़ था, जिसने दोनों दलों को एकजुट किया। हालांकि, 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद यह गठबंधन टूट गया, जिससे दोनों दलों के रिश्तों में दरार आ गई।
बीएसपी ने Akhilesh Yadav के बयान का विरोध किया है, इसे कांशीराम की स्वतंत्र राजनीति की उपेक्षा और उनके संघर्षों को कमजोर करने की कोशिश बताया। बीएसपी के नेता इसे एक प्रकार का ऐतिहासिक संशोधनवाद मानते हैं। मायावती ने इस पर सीधे प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन उनका मौन इस बात का संकेत हो सकता है कि पार्टी इस पर रणनीतिक तरीके से विचार कर रही है।
इस बीच, भाजपा ने इस विवाद का लाभ उठाने की कोशिश की है। पार्टी ने सपा पर आरोप लगाया कि वह केवल चुनावों के दौरान दलितों की याद करती है। भाजपा का लक्ष्य सपा-बीएसपी के बीच मतभेदों को और बढ़ाना है, ताकि विपक्षी एकता कमजोर हो सके।
Akhilesh Yadav की यह टिप्पणी उत्तर प्रदेश की राजनीति में आगामी चुनावों के लिए महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकती है। अगर दलित वोट सपा की ओर आकर्षित होते हैं, तो यह पार्टी को मजबूती दे सकता है। हालांकि, इससे बीएसपी के साथ मतभेद और बढ़ सकते हैं, जिससे गठबंधन की राजनीति प्रभावित हो सकती है।