Prayagraj history: प्रयागराज, जिसे पहले इलावर्त, इलाबास, कड़ा और फिर इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था, का इतिहास बहुत ही रोचक और विविधताओं से भरा है। डॉ. राजेंद्र त्रिपाठी ‘रसराज’ ने अपनी किताब प्रयागराज- कुंभ कथा में इसके मुगलकालीन इतिहास को विस्तार से लिखा है। उन्होंने बताया कि मुग़ल सम्राट अकबर ने प्रयाग के गंगा-यमुना संगम के महत्व को समझकर इसे अपने सूबे के अंतर्गत लिया और उसे “कड़ा” नाम दिया।
प्रयागराज (Prayagraj history) का ऐतिहासिक महत्व न केवल धार्मिक रूप से है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और सभ्यतागत केंद्र भी रहा है। यह भूमि वैदिक युग से लेकर भारतीय इतिहास के विभिन्न चरणों में महत्वपूर्ण रही है। यह स्थल गंगा-यमुना-सर्वस्व की पवित्र भूमि के रूप में जाना जाता था और पुराणों में भी इसका वर्णन है। इसके संगम स्थल की महिमा ऋग्वेद में भी मिलती है, जिसमें कहा गया है कि यहां स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्राचीन काल में प्रयाग को इलावास के नाम से जाना जाता था, और इसका शासन इलावंशीय राजाओं के हाथों में था। इन राजाओं के बारे में कहा जाता है कि वे मध्य हिमालय से होते हुए प्रयाग पहुंचे और यहां अपना राज्य स्थापित किया। इसके बाद यह इलाहाबाद या अल्लाहबाद के रूप में जाना गया।
मुगल काल में अकबर ने प्रयाग (Prayagraj history) की भौगोलिक स्थिति को देखा और इसे अपने शासन में शामिल किया। अकबर के बाद, बादशाह जहांगीर और शाहजहां के शासनकाल में इस शहर का नाम बदलकर इलाहाबाद किया गया। शाहजहां ने इस नगर को फिर से एक नई पहचान दी, जो आज तक कायम है।
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प्रयागराज का नाम इलावास, इलाहाबास, इलाहाबाद, और फिर अल्लाहबाद के रूप में बदलते हुए आखिरकार आज के रूप में विकसित हुआ। अंग्रेजों के अधीन आने के बाद, यह शहर उनके साम्राज्य का हिस्सा बन गया और 1801 में इलाहाबाद को स्थायी रूप से अंग्रेजों के कब्जे में कर लिया गया। इस प्रकार, यह प्राचीन नगर जो धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, एक लंबे इतिहास से गुजरते हुए अंततः अंग्रेजों के हाथों में चला गया।