मोहसिन खान
नोएडा डेस्कः कहते है कि ‘दीवाली में अली बसे, राम बसे रमज़ान, ऐसा होना चाहिए अपना हिन्दुस्तान’, रोशनी के त्यौहार दीवाली को मुगल बादशाहों ने भी बादशाहत के साथ मनाया, मुगल शासक मुहम्मद बिन तुगलक से शुरू हुआ दीवाली मनाने का सिलसिला आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तक बदस्तूर जारी रहा। मुगलकालीन दीपावली के तमाम प्रमाण मिलते है, और इसको मुगल बादशाहो ने नाम दिया था ‘जश्न-ए-चरागा’ यानि रोशनी का त्यौहार, बड़ी बात ये है कि महल पर दीवाली के दिन 40 यार्ड पर उंचा विशाल दीपक लगाया जाता था और उसका नाम ‘आकाश दीया’ होता था, कहा जाता है कि आकाश दीपक की रोशनी इतनी होती थी कि लालकिले से चांदनी चौक तक रोशनी होती थी।
मुहम्मद बिन तुगलक, बाबर, और अकबर की ‘दीवाली’
1324 से 1351 तक दिल्ली पर शासन करने वाले मुगल सम्राट मुहम्मद बिन तुगलक ने हिन्दू त्योहार दीवाली को पूरे जोश ओ खरोश से मनाने की पंरपरा को शुरू किया था और वो पहले मुगल शासक थे, जिन्होंने दीवाली मनाई, वो इस त्योहार को अच्छे भोजन और साज-सज्जा के साथ मनाते थे। जबकि मुगल बादशाह बाबर ने दीवाली के त्योहार को ‘एक खुशी का मौका’ के तौर पर मान्यता दी थी, इस दिन महल को रंग बिरंगी लाइटों से दुल्हन की तरह से सजाया जाता था और लाखों की संख्या में दीपक जलाए जाते थे। इस मौके पर शहंशाह बाबर गरीब रियाया को नए कपड़े और मिठाइयां भी देते थे। वहीं मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में 1556 से दिवाली के जश्न की शुरुआत आगरा से की राहुल सांकृत्यायन, जिन्होंने हिंदी में अकबर की एक जीवनी लिखी है, वो लिखत है कि अकबर दशहरा और दीवाली को शानो-शौकत के साथ मनाया करते थे, ब्राह्मणों से पूजा करवाना, माथे पर टीका लगाना, मोती-जवाहरात से जड़ी राखी हाथ में बांधना, अपने हाथ पर बाज बैठाना उनकी आदत में शुमार रहा है।
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अकबर ने दिवाली की बधाई के रूप में मिठाई देने की परंपरा भी शुरू की घेवर, पेठा, खीर, पेड़ा, जलेबी, फ़िरनी और शाहीटुकड़ा उत्सव की थाली का हिस्सा बन गए, उधर अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फज़ल की मशहूर किताब ‘आईना-ए-अकबरी’ में शहंशाह अकबर के दीवाली मनाने का तफसील ज़िक्र किया गया है, जिसमे बताया गया है कि महल की सबसे लंबी मीनार पर 20 गज़ लंबे बांस पर कंदील लटकाए जाते थे और पूजा दरबार आयोजित होता था।
शाहजहां ने की थी ‘आकाश दीपक’ की शुरूआत
दीवाली में मुस्लिम नव वर्ष उत्सव ‘नवरोज़’ को शामिल करके शाहजहां ने एक कदम ओर आगे बढ़ाया और यह उस दौर में साम्राज्य का एक बड़ा और संयुक्त त्योहार बन गया, उन्होंने छप्पनथाल को शुरू किया और एक पंरपरा के रूप में स्थापित किया। इसी दौर में शाहजहां ने ‘आकाश दीये’ की शुरूआत की, महल के ध्रुव पर 40 यार्ड पर ऊंचा विशाल दीपक लगाया जाता थाख् जो दिवाली वाली रात जलता था, कहते है कि इसकी रोशनी लालकिले से चांदनी चौक तक जाती थी, इस दिये में 100 किलो से ज्यादा रूई, सरसों का तेल लगता था और दिये में रूई की बत्ती और तेल डालने के लिए बड़ी सीढ़ी का इस्तेमाल होता था।
बहादुर शाह जफर ने किया लक्ष्मी जी का पूजन
आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर के दौर में महल में लक्ष्मी जी का पूजन शुरू हुआ, इतिहास के पन्नों को पलटने में सामने आता है कि बहादुर शाह जफर ने लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ लाल किले पर दीवाली की थीम पर नाटको का भी आयोजन कराया और तो और इस मौके पर जामा मस्जिद के पास आतिशबाज़ी भी होती थी। समीक्षक फिरोज बख्त अहमद लिखते है कि लक्ष्मी पूजन के लिए सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से आती थी, जबकि विलियम डेलरिम्पल अपनी किताब ‘द लास्ट मुगलः द फॉल ऑफ डेल्ही 1857 में लिखते है कि इस दिन जफर खुद को सात तरीके के अनाज, सोना और मूंगा के साथ तौलते थे और फिर उसको गरीबों में बांट देते थे और साथ ही हिन्दु अधिकारियो को उपहार भी दिया करते थे।
जहांगीर दीवाली पर खेलते थे चौसर
बादशाह अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर ने भी शिद्दत और खुशी के साथ दीवाली के त्योहार को बदस्तूर मनाया, इस दिन उनके महल को कई तरह की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था और जहांगीर दीवाली के दिन को शुभ मानकर चौसर भी खेलते थे। खुशियों के इस पर्व पर आसमान में 71 तोपें दागी जाती थी। इतना ही नहीं दीवाली मनाने में अकबर से एक कदम आगे रहे जहांगीर ने 1613 से 1626 तक अजमेर में दीवाली मनवाई और इसका ज़िक्र ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ में मिलता है, जहांगीर ने अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हज़ारों मशाले जलवाई थी…वो अपने हिन्दू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करते और फकीरों को नए कपड़े और मिठाईयां भी बांटते थे।